Saturday, December 20, 2008

कोसी की कोख की व्यथा

हम गंगा पुत्र है. हमारी मिट्टी को गंगा और इसकी बहनों का प्यार मिला है. खेती कर हम अपने और अपने परिवारों का पेट पालते हैं, हमें गंगा-कोसी-कमला-गंडक आदि नदियों की मात्रि - छाया मिली है.
माँ कभी-कभी नाराज भी हो जाती है, लेकिन इतनी निर्दयी और निष्ठुर हो जायेगी ऐसा तो कभी सोचा भी नहीं था. माँ ने हमारा घर-द्वार, खेत-खलिहान सब नष्ट कर दिया. आज माँ के आँचल में, खुले मैदानों में तिरपाल और साडी की छत के नीचे हमारी रातें कटती हैं. पेट की आग को देह की ठण्ड ने भुला दिया है. कटीली सर्द हवाएं तो जानलेवा हैं. अब तो अपने घुटनों को पेट तक पूरा समेट कर भी, इस ठण्ड से कोई राहत नहीं मिलती. छोटे-छोटे बच्चों की हालत देखी नहीं जाती. जिन्दगी बोझ की तरह घिसट-घिसट कर उबड़-खाबड़ पगडंडियों पर सरक रही है.
महाभारत काल से आज तक, शायद गंगा पुत्रों की यही नियति है की बाणों से बिंधे हुए शरीर को भी, मौत अपनी इच्छा से नहीं मिलती, उन्हें रोज मर-मर कर जीना पड़ता है.
हाँ, हम तो गंगा-पुत्र हैं.

- अनिल वर्मा

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