Tuesday, November 25, 2008

ये तस्वीरे कुछ कहती हैं....
























तस्वीरे बयान कर देती है अफसाना
मुमकिन ना हो गर लफ्जो में समझाना

Sunday, November 23, 2008

बाढ़ राहत अभियान से दो संस्मरण

अरे- अरे ये क्या कर रहे हो? उतरो, पीछे हटो- पीछे हटो. सबको पीछे करो. बोट जोरों से हिल रही थी. एक बार तो हम सब घबरा गए कि कहीं बोट उलट ना जाए फ़िर रिलीफ पैकेटों को नीचे रखकर, अब हम उन सबों को पीछे करने लगे जो कमर तक के पानी में रिलीफ पैकेट लेने के लिए बोट को घेर कर खड़े थे. खैर जल्द ही उन्हें भी समझ में आ गया कि इस अफरा-तफरी से उन्हें पैकेट नही मिलने वाला. वो कुछ शांत हुए तो हमने दुबारा पैकेट बाँटना शुरू किया. जब पेट में आग लगी हो तो अनुशासन की कल्पना भी कैसे हो. कई दिनों से भूखे, ये लोग जल्द से जल्द एक पैकेट ले लेना चाहते थे या यूँ कहे कि बस हमसे छीन लेना चाहते थे. खैर आगे कोई खतरा नही हुआ क्योकि पैकेट ख़त्म हो चुके थे. जिन्हें नही मिले वो निराश हो गए लेकिन हम नहीं. हम जानते थे कि अगली बोट पहुँचती ही होगी और लो आ गयी वो. सब तैरते-भागते उस बोट की ओर बढ़ चले और हम वापस किनारे की ओर.

सेना और मारवाडी युवा मंच सदस्यों की संयुक्त टीम द्वारा एक महीने तक लगातार चलाये गए बाढ़ राहत अभियान से एक संस्मरण, उपरोक्त ऑपरेशन स्थल - कुसहा और आस-पास. बेस कैम्प - त्रिवेणीगंज. सितम्बर २००८ के व्यस्त महीने का एक दिन.

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हम लौट रहे हैं... गाडी तेज रफ़्तार से आगे बढ़ रही है.. कहीं-कहीं सड़क बाढ़ के पानी से कट गयी है अन्यथा ड्राइविंग के लिए अच्छी है. सड़क के बाएँ ओर वाले खेत पूरी तरह पानी में डूबे हुए हैं. हम छ-सात जाने कई दिनों बाद वापस लौट रहे हैं उस जगह से जिस पर आज पूरी दुनिया और खास तौर पर मीडिया की नजर है. बेलदौर (जिला- खगडिया) पहुँचने से कुछ ही पहले मैंने कुछ देखा, मेरे मुख से निकला- ओह. सरिता भाभी ने अगली सीट से पूछा - क्या हुआ, मैंने कहा- नहीं, कुछ भी नहीं, बात बदलते हुए मैंने कहा जो अब हम सब नोटिस कर रहे थे - आपने देखा जब हम पहले आए थे तब पानी का लेवल इससे कम था. आनंद भैया ने कहा- हाँ पानी काफी बढ़ गया है. खेतों के पानी को देखते समय, अब सबने वो नजारा देखा जो मैं चार-पाँच मिनट से देख रहा था. हमारी scorpiyo ६० कि.मी से अधिक की रफ्तार से चल रही थी और पिछले पाँच मिनट में यह चौथी लाश जो पानी में तैरते हुए सड़क किनारे आ लगी थी और कुछ पछियों को उनका आहार मिल गया था. फ़िर से हम सब वो सब देख रहे थे जिसे देख कर यहाँ से जाने की इच्छा नहीं होती थी, पता नहीं और किस-किस के काम आ जायें. लेकिन बाढ़ग्रस्त इलाके के इस अन्तिम छोर पर इतनी मौतें - इसका अंदाजा हमें नहीं था. सरिता भाभी ने कहा कि एक टीम हमें कल ही यहाँ भेजनी होगी. ज़रा सा आगे बढ़ने पर फ़िर वही नजारा जो हमने त्रिवेणीगंज से खगडिया तक के इस लंबे सफर में हमने जगह-जगह देखा था - सड़क के किनारे हजारों परिवार, महिलाएं, बच्चे और उनके पशु (गाय- भैंस) नजर आ रहे थे. तिरपाल को बांस के सहारे टांग कर, झोंपडीनुमा आकार दिया है. अभी तो ये चल जाएगा, दिसम्बर - जनवरी में ठण्ड से ये कैसे बचेंगे? इसका जवाब किसी के पास नही था. गाड़ी आगे बढ़ती जा रही थी.

Thursday, November 20, 2008

त्रासदी

बाढ़ की मार तो हम हर वश झेलते हैं किंतु प्रलय तो जीवन में पहली बार देखि और महसूस की सिर्फ़ कुछ घंटो में बिहार के ६ जिले उफनती कोसी के रौद्र रूप से सहम गए प्रचंड वेग के साथ जब सैलाब आया तो अपने साथ हजारों जिंदगियों को बहा ले गया जब तक कुछ समझ में आता तो मुरलीगंज, वीरपुर जैसी जगहों पर आठ फुट से ऊपर पानी और अधिकांश जगहों पर चार से पाँच फुट पानी अत्यधिक तेज धार के साथ प्रवाहित हो रहा था बिहार के ६ जिले समा गए कोसी के प्रलयंकारी समुद्र में बिहार का शोक, महाशोक बनकर सर पर टूट पड़ा कोसी ने अपनी गोद में बसी बस्तियां बेरहमी से उजाड़कर अपने ही पेट में समा ली। विकराल नागिन बनकर अपने ही बच्चो को निगलकर खा गयी। अस्सी साल का सुदामा जार-बेजार रो रहा है। भूख से कराह रही है आंते ऐंठ कर। कराली कोसी ने क्यो उसे जीवित छोड़ दिया उखड़े पेड़ के डाली पर। किसके लिए जीयेगा वह? पोते-पोतियों को बचाने में तीन-तीन बेटों और बहुओं को विषैली नागिन सी फुफकारती कोसी के कराल मुख ने अपने में समा लिया। आज एक नही, दो नहीं, हजारों सुदामा की यह दर्दनाक दास्ताँ कराली कोसी की प्रलयंकारी लहरों में भीषण वेदना की दर्द भरी चीख बनकर गूँज रही है। आज सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, अररिया, फोरबिसगंज, पूर्णिया, खगडिया के साथ पूरे बिहार की आंखों से सावन-भादों बनकर गंगा-जमुना बह रही है। महाप्रलय में डूबे ४० लाख लोगो के साथ पूरा बिहार सुबक-सुबक कर रोया। कोसी ने अपने आँचल को फ़िर से मैला कर लिया।
इस आपदा की घड़ी में कुछ हाथ बेसहारों का सहारा बनकर उठे थे, ये हाथ हमारे मंच साथी थे। कोसी की लहरों से टकराते युवा मंच के हौसले को सलाम, सलाम सभी युवा साथियों को जिन्होंने जाने - अनजानों के लिए अपनी जान भी दाँव पर लगा कर सेवा भावना की अद्वितीय मिसाल पेश की। एक महीने से अधिक समय तक अपने व्यापार, व्यवसाय, परिवार और अपने आप को भी भुला कर पीडितों की सेवा की, उनके दुःख दर्द दूर करने के लिए अपने आपको न्योछावर कर दिया। धीरे धीर सारी बातें अतीत में धुंधली हो जायेगी, लेकिन हम कैसे भुला देंगे निर्मली शाखा के सदस्यों को जिन्होंने ११ दिनों से भूखे, मदरसे के ५०० बच्चो समेत हजारों जिंदगियों को अन्न एवं पीने योग्य पानी पहूंचाया। नमन है दिनेश शर्मा, बिनोद मोर, अभिषेक पंसारी और पूरी टीम को। हम कैसे भुला देंगे मनीष चोखानी, त्रिवेणीगंज के साहस को जिसने ९० से अधिक व्यक्तियों को पूरी तरह डूब चुके जदिया गाँव से, पानी के तेज़ धार के बीच से नाव से बचाकर सुरक्षित स्थान तक पहुँचाया। सुभाष वर्मा और नोगछिया शाखा के साथियों को जिन्होंने मधेपुरा के डूबे हुवे गावों में भोजन और राहत सामग्री पहूँचाई। मनीष बुचासिया और सिल्क सिटी शाखा जो पानी के तेज़ धार से लड़ते हुवे लखीपुर और खेरपुर पहुंचते है जिंदगियां बचाने को।
राघोपुर सिमराही शाखा के गोपाल चाँद जब रोती हुई माँ के बच्चे को खोज कर लाते हैं तो मान की आशीसों ने नदी की धार के साथ किए गए श्रम की थकान को भुला दिया।
ऐसी अनगिनत कहानियां और उदाहरण गवाह हैं - हमारे युवा मंच के साथियों के शौर्य के और यही है कोसी की लहरों से टकराती राजस्थानी हौसले की जिद।
- सरिता बजाज, खगडिया (बिहार)

Wednesday, November 19, 2008

मारवाड़ी युवा मंच का बाढ़ राहत अभियान - एक संस्मरण

हम बारह जने थे, चार-चार लोग तीन बोट पर सवार हुए साथ ही चार आर्मी के जवान भी बैठे हर एक बोट पर. रिलीफ मेटेरियल हमने लोड कर लिया था. साथ में ढेर सारी पानी की बोतलें और हाँ हर एक के लिए एक छाता भी. धुप तो चमड़ी जला रही थी इन दिनों. वाह री कुदरत तेरा भी गजब खेल है नीचे तो चारो तरफ़ पानी ही पानी और ऊपर से आग बरस रही है. मोटर बोट स्टार्ट हुई और ....

बाढ़ राहत अभियान से पुनर्वास कार्यक्रम तक - ३ महीनो का सफर

अनिल वर्मा, १८ नवम्बर २००८, पटना सिटी.
प्रलय.. विनाश.. तबाही.. लोगो की चीख पुकार.. डूबते लोग.. तैरती लाशें.. और अंत में गहरा सन्नाटा.. जिसे रह-रह कर सुख चुके आंसुओ के साथ अभागों का क्रंदन ही तोड़ता था. एक युग की तरह समाप्त हुए इस दौर में एक-एक पल बरसो की तरह प्रतीत होते थे.

आज उस त्रासदी को घटित हुए ३ महीने पूरे हुए जिसकी गूँज विधवाओ के विलाप और बच्चो की सिस्कारियों के रूप में आज भी प्रतिध्वनित होती है.
काफ़ी कुछ देखा जाना और महसूस किया पिछले ३ महीनो में. लोगो को... जो बेबस और लाचार थे, और उनको भी जो इनकी बेबसी को अपनी खुशनसीबी मान रहे थे. कुछ ऐसे थे जो इनकी सेवा करते हुए न्योछावर हो रहे थे .. धन्य मान रहे थे की कुछ काम तो आ सके .. उसके बाद भी अफ़सोस की ओह कुछ भी तो न कर सके .. काश और कर पाते.
और हाँ ऐसे लोगो को भी देखा जिन्हें ये अफ़सोस था की अरे इस सारी कवायद से हमें कितना फायदा हुआ.. इन्हे अफ़सोस था की उन अभागों के आंसू पोंछने में उनका नाम क्यो नही हुआ.. ये और चाहे कुछ ना करते, एक रुमाल तो दे ही सकते थे और ढोल पीट सकते थे.. मीडिया और समाज में की देखो ये जो आंसुओ से भींगा हुआ रुमाल है ये हमने अर्रेंज करवाया था.. इसको निचोडो.. अरे देखो-देखो कितने आंसू है. इनको पोंछने का क्रेडिट हमें जाता है.. हर आंसू का हिसाब वसूलना है. आओ एक फोटो हो जाए इस रुमाल के साथ.. क्लिक . लो जी हो गयी समाज सेवा.
आप पूछेंगे.. बहुत नाराज हो भाई.. हाँ हूँ.. भड़ास निकाली है. इस ब्लॉग में ये सब क्यो लिखा? क्योकि यहाँ लिखना जरुरी था. किंतु क्षमा करें इसका उत्तर या इस बारे में किसी भी प्रश्न का कोई जवाब मुझसे कभी नही मिलेगा. मन हल्का हुआ आइये अब कुछ और भी बातें करें.
बाढ़ राहत अभियान को हम उन बातों के लिए नही याद रखेंगे जो ऊपर लिखी है क्योकि इस बारे में ज्यादा लोग नही जानते. ये लडाई तो मानसिक रूप से लड़ी जा रही थी.
धरातल पर तो शौर्य की गाथाएं लिखी गयीं. यहाँ पराक्रम दिखाने को हल्दीघाटी का मैदान तो नही था लेकिन कोसी के कोप में डूबा एक बड़ा भू-भाग था जिसने तबाही के मंजर पर हौंसलों की इबारतों को खडा होते देखा. नमन है साथियों आप भीष्म है और आप ही कृष्ण भी.
आज के दौर में जब लोग अस्पताल के सामने बेहोश पड़े आदमी को भी अन्दर नही ले जाना चाहते क्योकि उन्हें ऑफिस में देर हो जायेगी.. या यह उनकी जवाबदेही नही है.
ऐसे में, आप सबो ने सेवा की ऐसी मिसाल पेश की है जिसके बारे में लोग बरसों तक चर्चे करेंगे. .. कम से कम वो तो करेंगे ही.. जिन बेबसों के लिए आपने अपने व्यापार, व्यवसाय और परिवार का त्याग किया. नेताओ, मीडिया और ...... का सर्टिफिकेट चाहिए किसे?
बेमिसाल ... शाबास .. शाबास.
अब आगे क्या?
हूँ.. .... करने को तो काफ़ी कुछ है. पुनर्वास प्रोजेक्ट हम सबों ने फाईनल किया था ... करेंगे भी .. प्रांत के पास अर्थाभाव है. लेकिन ये तो पहले भी था तब भी तो काम हुआ ही. हमें भरोसा है हमारी लीडर पर.. जब यहाँ तक पहुंचे है तो इस मंजिल को भी पा लेंगे. हमारी लीडर के बारे में बड़ी बात ये है की उनका ह्रदय माँ की तरह कोमल हो लेकिन उनके इरादे फौलाद की तरह मजबूत होते है. .. और जरुर करेंगे भाई.. समाज के लिए करना है.. समाज जरुर सहयोग करेगा.
जगदीश जी, जिन्हें हम प्यार से पप्पू भइया कहते है उनकी चाचीजी का स्वर्गवास हो गया. इस वजह से यह प्रोजेक्ट दस-बारह दिनों के लिए विलंबित हो गया है अन्यथा छठ पर्व के बाद हम जोर-शोर से इस प्रोजेक्ट में लगने ही वाले थे. पप्पू भइया एक-दो दिनों में फ्री हो जायेंगे और पुनः पूरी टीम निकल पड़ेगी उसी सफर पर जिसकी शुरुआत तो हमें पता होती है, किंतु अंत नही. गजब अहसास है... सोचकर ही .. शरीर ऊर्जा से भर उठता है.
रह-रह कर फंड की चिंता होती है किंतु भरोसा है .. पप्पू भइया है न .. सरिता भाभी - आनंद भइया है ना .. वो लोग देख लेंगे. पहले भी इन लोगो ने सब कुछ संभाला था. आगे भी इन पर ही सारी जिम्मेदारी है.
और अंत में धन्यवाद ... आज के कर्ण और भामाशाहों का जिन्होंने मानवता की सेवा में अपना खजाना खोल दिया अन्यथा ये सब कुछ हम सबों के बस का था क्या?

- अनिल वर्मा
मारवाडी युवा मंच, बिहार का एक कार्यकर्ता