अरे- अरे ये क्या कर रहे हो? उतरो, पीछे हटो- पीछे हटो. सबको पीछे करो. बोट जोरों से हिल रही थी. एक बार तो हम सब घबरा गए कि कहीं बोट उलट ना जाए फ़िर रिलीफ पैकेटों को नीचे रखकर, अब हम उन सबों को पीछे करने लगे जो कमर तक के पानी में रिलीफ पैकेट लेने के लिए बोट को घेर कर खड़े थे. खैर जल्द ही उन्हें भी समझ में आ गया कि इस अफरा-तफरी से उन्हें पैकेट नही मिलने वाला. वो कुछ शांत हुए तो हमने दुबारा पैकेट बाँटना शुरू किया. जब पेट में आग लगी हो तो अनुशासन की कल्पना भी कैसे हो. कई दिनों से भूखे, ये लोग जल्द से जल्द एक पैकेट ले लेना चाहते थे या यूँ कहे कि बस हमसे छीन लेना चाहते थे. खैर आगे कोई खतरा नही हुआ क्योकि पैकेट ख़त्म हो चुके थे. जिन्हें नही मिले वो निराश हो गए लेकिन हम नहीं. हम जानते थे कि अगली बोट पहुँचती ही होगी और लो आ गयी वो. सब तैरते-भागते उस बोट की ओर बढ़ चले और हम वापस किनारे की ओर.
सेना और मारवाडी युवा मंच सदस्यों की संयुक्त टीम द्वारा एक महीने तक लगातार चलाये गए बाढ़ राहत अभियान से एक संस्मरण, उपरोक्त ऑपरेशन स्थल - कुसहा और आस-पास. बेस कैम्प - त्रिवेणीगंज. सितम्बर २००८ के व्यस्त महीने का एक दिन.
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हम लौट रहे हैं... गाडी तेज रफ़्तार से आगे बढ़ रही है.. कहीं-कहीं सड़क बाढ़ के पानी से कट गयी है अन्यथा ड्राइविंग के लिए अच्छी है. सड़क के बाएँ ओर वाले खेत पूरी तरह पानी में डूबे हुए हैं. हम छ-सात जाने कई दिनों बाद वापस लौट रहे हैं उस जगह से जिस पर आज पूरी दुनिया और खास तौर पर मीडिया की नजर है. बेलदौर (जिला- खगडिया) पहुँचने से कुछ ही पहले मैंने कुछ देखा, मेरे मुख से निकला- ओह. सरिता भाभी ने अगली सीट से पूछा - क्या हुआ, मैंने कहा- नहीं, कुछ भी नहीं, बात बदलते हुए मैंने कहा जो अब हम सब नोटिस कर रहे थे - आपने देखा जब हम पहले आए थे तब पानी का लेवल इससे कम था. आनंद भैया ने कहा- हाँ पानी काफी बढ़ गया है. खेतों के पानी को देखते समय, अब सबने वो नजारा देखा जो मैं चार-पाँच मिनट से देख रहा था. हमारी scorpiyo ६० कि.मी से अधिक की रफ्तार से चल रही थी और पिछले पाँच मिनट में यह चौथी लाश जो पानी में तैरते हुए सड़क किनारे आ लगी थी और कुछ पछियों को उनका आहार मिल गया था. फ़िर से हम सब वो सब देख रहे थे जिसे देख कर यहाँ से जाने की इच्छा नहीं होती थी, पता नहीं और किस-किस के काम आ जायें. लेकिन बाढ़ग्रस्त इलाके के इस अन्तिम छोर पर इतनी मौतें - इसका अंदाजा हमें नहीं था. सरिता भाभी ने कहा कि एक टीम हमें कल ही यहाँ भेजनी होगी. ज़रा सा आगे बढ़ने पर फ़िर वही नजारा जो हमने त्रिवेणीगंज से खगडिया तक के इस लंबे सफर में हमने जगह-जगह देखा था - सड़क के किनारे हजारों परिवार, महिलाएं, बच्चे और उनके पशु (गाय- भैंस) नजर आ रहे थे. तिरपाल को बांस के सहारे टांग कर, झोंपडीनुमा आकार दिया है. अभी तो ये चल जाएगा, दिसम्बर - जनवरी में ठण्ड से ये कैसे बचेंगे? इसका जवाब किसी के पास नही था. गाड़ी आगे बढ़ती जा रही थी.
Sunday, November 23, 2008
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कितना मार्मिक चित्रण हुआ है माहौल का। वैसे स्थिति इससे भी अधिक बुरी होगी , इसकी भी कल्पना की जा सकती है , क्योकि टी वी पर उस समय जो दिखाया जा रहा था , वह बहुत ही दर्दनाक था।
ReplyDeleteBadaahi bheeshan drushya hoga wo..aapne likha bhi istarhse hai ki raungte khade ho jaate hain...kaash isee badhke paaneeko rok inhen talabonme jama kiya jaa sake...ya to hamare deshme sookha padta hai baadh....shatrshuddh niyojanse ye dono sthitiyan qaabume aa sakti hai, bas uske liye prabal ichhashakti chahiye...wo chahe NGOs ki ho ya sarkaree ya mili julee....kaam bohot bada hai par namumkin nahee...
ReplyDeleteSwagat hai aapka yahan !Yaqeenan aap bohot achha kaam kar rahe hain...lokjagruteeka !
हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका हार्दिक स्वागत है. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाऐं.
ReplyDeleteएक निवेदन: कृप्या वर्ड वेरीफिकेशन हटा लें तो टिप्पणी देने में सहूलियत होगी.
आत्मीय स्वागत है आपका
ReplyDeleteनिरंतरता बनाए रखें ... समय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर दस्तक दे पुन:स्वागत
प्रदीप मनोरिया
09425132060
रोचक और साहसी. आपका स्वागत है.
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